गौ वत्स द्वादशी | बछ (बाघ )बारस | Bach Baras Vrat Katha Vidhi aur Mahatmya

Govatsa Dwadashi

गौ वत्स द्वादशी और बछ बारस | Bach Baras Vrat Katha Vidhi aur Mahatmya

 
गौवत्सद्वादशी (मदनरत्नान्तर्गत भविष्योत्तरपुराण) | Govatsa Dwadashi –

गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi ) का व्रत कार्तिक कृष्ण द्वादशी (Kartik Krishan Dwadashi) के दिन मनाया जाता है। इसमें प्रदोष व्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि वह 2 दिन हो तो ‘वत्सपूजा वटश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेऽहनि’ के अनुसार पहले दिन व्रत करना चाहिए।

गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) को बछ बारस (Bach Baras) त्योहार के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत में बछ यानी बछड़े और उनकी माता गाय (Gau Mata) की पूजा होती है। गुजरात में इस त्यौहार को बाघ बरस (Vagh Baras) के नाम से मनाया जाता है। गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) एकादशी (Ekadshi) के अगले दिन मनाई जाती है. इस दिन गाय माता और उसके बछड़े की पूजा करने का नियम है। इस पूजा को सुबह के समय गोधूलि बेला में किया जाता है, जिस वक्त सूर्य उदय होता है। गोवत्स पूजा (Govatsa Puja) के दिन सभी महिलाएं व्रत रखती हैं। गोवत्स पूजा खासतौर से पुत्र प्राप्ति के लिए की जाती है। यह व्रत महिलाओं के लिए बहुत ही मंगलकारी है। गोवत्स द्वादशी (Bach Baras) का व्रत महिलाएं पुत्र की लंबी उम्र और उनकी मंगल कामना के लिए करती हैं।

व्रत का विधि-विधान (Vrat ka Vidhi-Vidhan)
  • गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) के दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पृथ्वी पर सोना चाहिए।
  • इस दिन पूरे मन से भगवान विष्णु (God Vishnu) और भगवान शिव (God Shiv) की पूजा अर्चना करनी चाहिए।
  • इस बात का स्मरण रखें कि उस दिन के भोजन के पदार्थों में गाय का दूध, घी, दही, छाछ और खीर तथा तेल के पके हुए भुजिया पकौड़ी या अन्य कोई पदार्थ न हों।
  • जो भी व्यक्ति पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) का व्रत करता है उसे सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और उसके जीवन में कभी भी कोई कमी नहीं होती है।
  • गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) के दिन सुबह सूर्योदय से पहले उठकर किसी पवित्र नदी या तालाब में स्नान करने के बाद साफ-सुथरे वस्त्र धारण करने चाहिए।
  • इसके बाद पूरे सच्चे हृदय से व्रत का संकल्प लेना चाहिए। गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) के व्रत में सिर्फ एक समय भोजन करने का नियम है।
  • इस व्रत में भैंस के दूध और उससे बनी चीजों का सेवन नहीं किया जाता है।
  • साथ ही इसमें छूरी चाकू का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • इस दिन गाय और उसके बछड़े को किसी नदी या सरोवर में स्नान कराने के बाद नए वस्त्र पहनाए जाते हैं।
  • गाय और उसके बछड़े के गले में फूलों की माला पहनाने के बाद चंदन से तिलक करते हैं।
  • इसके बाद तांबे के बर्तन में सुगंध, अक्षत, तिल,जल और फूलों को मिलाकर नीचे बताए गए मंत्र का उच्चारण करते हुए गाय की पूजा करते हैं।

क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते| सर्वदेवमयेमातर्गृहाणार्घ्य नमो नम:॥

  • इस मंत्र को पढ़ने के बाद गाय को उड़द की दाल से बना भोजन खिलाएं और नीचे दिए गए मंत्र को पढ़ते हुए गौमाता (Gau Mata) से प्रार्थना करें।

सुरभि त्वम् जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता सर्वदेवमये ग्रासंमय दत्तमिमं ग्रस ततः सर्वमये देवी सरदेवैरलङ्कृते मातमरमाभिलाषितम सफलम कुरु नंदिनी

  • इनके साथ ही अपने कुल देवी देवता और श्रीकृष्ण (Shree Krishna) की पूजा करनी चाहिए।
  • इस मंत्र का जाप करके पूजा करने के बाद गोवत्स (Govatsa) की कथा सुनी जाती है।
  • पूरा दिन व्रत करने के बाद रात के समय अपने इष्ट देव और गौ माता की आरती करने के बाद भोजन किया जाता है।
गौवत्सद्वादशी की व्रत कथा | Govatsa Dwadashi (Bach Baras) ki Vrat Katha

प्राचीन समय में भारत में सुवर्णपुर नगर में देव दानी राजा राज्य करता था। उसके सवत्स एक गाय और भैंस थी। राजा की दो रानियाँ थी। एक का नाम गीता तो दूसरी का नाम सीता था। सीता भैंस से सहेली सा प्यार करती थी। तो गीता गाय व बछड़े से सहेली सा प्रेम करती थी। एक दिन भैंस सीता से कहती है कि गीता रानी गाय व बछड़ा होने से मुझसे ईर्ष्या करती है। सीता ने सब सुनकर कहा कि कोई बात नहीं मैं सब ठीक कर दूंगी। सीता रानी ने उसी दिन गाय के बछड़े को काटकर गेहूँ के ढ़ेर में गाड़ दिया। किसी को भी इस बात का पता नहीं चल पाया।

राजा जब भोजन करने बैठा तब मांस की वर्षा होने लगी। महल में चारों ओर मांस तथा खून दिखाई देने लगा। थाली में रखा सारा भोजन मलमूत्र में बदल गया। यह सब देखकर राजा के होश उड़ गये और उन्हें अहसास हुआ की उनके राज्य में कोई बहुत बड़ा पाप हुआ है। जिसकी सजा पुरे राज्य को मिलने वाली है।

ईश्वर से विनती करने पर राजा को एक आकाशवाणी सुनाई दी – कि हे राजन! तुम्हारी रानी सीता ने गाय के बछड़े को मारकर गेहूँ के ढेर में छिपा दिया है। जिससे यह संकट पुरे राज्य में आया है। इस संकट से उभरने के लिए कल गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) पर तुम्हे गाय तथा बछडे़ की पूजा करनी है। कल गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) है इसलिए भैंस को बाहर कर गाय व बछड़े की पूजा करो। इस दिन व्रत रखकर एक ही समय खाना है जिसमे गेहूं का प्रयोग नही करना ना ही चाकू काम में लेना है। कटे हुए फल और दूध का सेवन नहीं करना इससे तुम्हारे पाप नष्ट हो जाएंगे और बछड़ा भी जीवित हो जाएगा।

संध्या समय में गाय के घर आने पर राजा ने उसकी पूजा की और जैसे ही बछड़े को याद किया वह गेहूँ के ढेर से बाहर निकलकर गाय के पास आकर खड़ा हो गया। यह सब देख राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने राज्य में सभी को गोवत्स द्वादशी (Govatsa Dwadashi) का व्रत करने का आदेश दिया।

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चरती गाय को रोका तो हुए नरक दर्शन – Raja Janak & Gau Mata-Pauranik katha

Gau mata aur raja janak

प्राचीन काल की बात है। राजा जनक (Raja Janak) ने ज्यों ही योग बल से शरीर का त्याग किया, त्यों ही  एक सुंदर सजा हुआ विमान आ गया और राजा दिव्य-देहधारी सेवको के साथ उस पर चढ़कर चले। विमान यमराज की संयमनीपुरी के निकटवर्ती  मार्ग से जा रहा था ।

ज्यों  ही विमान वहां से आगे बढ़ने लगा, त्यों ही बड़े ऊंचे स्वर से राजा को हजारों मुखों से निकली हुए करूण-ध्वनि सुनायी पड़ी- ‘पुण्यात्मा राजन् ! आप यहां से जाइए नहीं; आपके शरीर को छूकर आने वाली वायु का स्पर्श पाकर हम यातनाओं से पीड़ित नरक के प्राणियों को बड़ा ही सुख मिल रहा है।’ 

धार्मिक और दयालु राजा ने दुखी जीवों की करुण पुकार सुनकर दया करके निच्श्रय किया कि ‘जब मेरे यहां रहने से इन्हें सुख मिलता है, तो बस, मैं यही रहूंगा। मेरे लिए यही सुंदरस्वर्ग है। राजा वहीं ठहर गए ।

तब यमराज ने उनसे कहा- ‘यह स्थान तो दुष्ट,  हत्यारे पापियों के लिए है l हिंसक, दूसरों पर कलंक लगाने वाले, लुटेरे, पतिपरायणा पत्नी का त्याग करनेवाले, मित्रों को धोखा देने वाले, दम्भी, द्वेष और उपहास  करके,  मन-वाणी-शरीर से कभी भगवान का स्मरण न करने वाले जीव यहां आते हैं और उन्हें नरको में डालकर मैं भयंकर यातना दिया करता हूं l तुम तो पुण्यात्मा  हो, यहां से अपने प्राप्य दिव्यलोक में जाओ ।’ 

जनक (Raja Janak) ने कहा- ‘मेरे शरीर से स्पर्श की हुई वायु इन्हें सुख पहुँचा रही है, तब मैं कैसे जाऊं ? आप इन्हें इस दुख से मुक्त कर दे तो मैं भी सुख पूर्वक स्वर्ग  में चला जाऊंगा।‘

यमराज ने कहा- ‘ये  कैसे मुक्त हो सकते हैं ? इन्होंने बड़े-बड़े पाप किये हैं। इस पापीने अपने पर विश्वास करने वाली मित्र पत्नी पर बलात्कार किया था, इसलिए इसको मैंने लोहशङ्कु नामक नरक में डालकर 10000 वर्षों तक पकाया है । अब इसे पहले सूअर की फिर मनुष्य की योनि प्राप्त होगी और वहां पर नपुंसक होगा। यह दूसरा बलपूर्वक व्यभिचार में प्रवृत था । 100 वर्षों तक रौरवनरक में पीड़ा भोगेगा l इस तीसरे ने पराया धन चुरा कर भोगा था,  इसलिए दोनों हाथ काटकर इसे पूय- शोषित नामक नरक में डाला जाएगा। इस प्रकार ये सभी पापी नरक के अधिकारी हैं । तुम यदि इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना को पुण्य अर्पण करो l एक दिन  प्रात: काल शुद्ध मन से तुमने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रघुनाथ जी का ध्यान किया था और अकस्मात् राम-नामका उच्चारण किया था, बस वही पुण्य इन्हें दे दो l उससे इनका उद्धार हो जाएगा ।’

राजा ने तुरंत अपने जीवन भर का पुण्य दे दिया और इसके प्रभाव से नरक के सारे प्राणी नरक-यंत्रणा से तत्काल छूट गए तथा दया के समुद्र महाराज जनक का गुण गाते हुए दिव्य लोक को चले गए।

तब राजा ने धर्मराज से पूछा- ‘जब धार्मिक पुरुषों का यहां आना ही नहीं होता, तब फिर मुझे यहां क्यों लाया गया।’  

इस पर धर्मराज कहा,  ‘राजन ! तुम्हारा जीवन तो पुण्यों से भरा है। पर एक दिन तुमने छोटा-सा पाप किया था।

एकदा तु चरन्तीं गां वारयामास वै भवान् । 

तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम् ।।

तुमने चरती  हुई गाय को रोक दिया था। उसी पाप के कारण तुम्हें नरक का दरवाजा देखना पड़ा। अब तुम उस पाप से मुक्त हो गए और इस पुण्य दान से तुम्हारा पुण्य और भी बढ़ गया l तुम यदि इस मार्ग से न आते तो इन बेचारों का नरक-यंत्रणा से कैसे उध्दार होता ? तुम- जैसे दूसरों के दुख से दुखी होने वाले दयाधाम महात्मा दुखी प्राणियों का दुख हरने में ही लगे रहते हैं। भगवान कृपा सागर है । पाप का फल भुगताने  के बहाने इन दुखी जीवो का दुख दूर करने के लिए ही इस संयमनी के मार्ग से उन्होंने तुमको यहां भेज दिया है ।’ 

तदनन्तर राजा धर्मराज को प्रणाम करके परमधाम को चले गए ।

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वृषभध्वज शिवजी – Lord Shiva known as Vrishabh Dhvaj ? Pauranik Katha

vrishbh dhvaj lord shiva

महाभारत अनुशासन पर्व में वृषभ ध्वज (Vrishabh Dhvaj) की कथा है । एक बार गौ माता सुरभि (Surabhi) का बछड़ा दूध पी रहा था। दूध पीते हुए बछड़े के मुख में मुख पर दूध की बन गई थी। वही झाग हवा से उड़ कर भगवान शंकर  (Lord Shiva) जी के मस्तक पर जा गिरी। ऐसा होने पर भगवान शिव (Lord Shiva) कुछ क्रोधित हो गए।

उस समय प्रजापति जी ने भगवान शंकर (Lord Shiva) से कहा, “ हे प्रभु ! आपके मस्तक पर जो दूध का छींटा पड़ा है। वह अमृत है। बछड़ों के पीने से गाय का दूध झूठा नहीं होता। जैसे अमृत का संग्रह करके चंद्रमा उसे बरसा देता है, वैसे ही रोहणी गौएँ भी अमृत से उत्पन्न दूध को बरसाती है। जैसे वायु,अग्नि, सुवर्ण, समुंद्र और देवताओं का पिया हुआ अमृत, कभी झूठे नहीं होते, वैसे ही बछड़ों को पिलाती हुई गौ भी कभी दूषित नहीं होती। ये गौमाता अपने दूध घी से समस्त जगत का पोषण करती हैंl सभी लोग इन गौओं के अमृतमय पवित्र दूध रुपी ऐश्वर्य की इच्छा करते हैं।”

तत्पश्चात प्रजापति जी ने श्री महादेव जी (Lord Shiva) को बहुत सी गौ और एक बैल दिया l इस पर शिवजी ने प्रसन्न होकर वृषभ अर्थात बैल को अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्र से सुशोभित किया। इसी से उनका नाम ‘वृषभ ध्वज’ (Vrishabh Dhvaj) पड़ा। 

फिर देवताओं ने महादेव जी को पशुओं का स्वामी बना दिया और गौओ के बीच में उनका नाम ‘वृषभाङ्क’ (Vrishbhank) रखा गया। 

गौएँ संसार में सर्वश्रेष्ठ है। वे सारे जगत को जीवन देने वाली है। भगवान शंकर सदा उनके साथ रहते हैं। वे चंद्रमा से निकले हुए अमृत से उत्पन्न शांत, पवित्र, समस्त कामनाओं पूर्ण करने वाली और समस्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाली है ।

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गौ का मूल्याङ्कन | Chyavan Rishi, Raja Nahush & Gau – Pauranik Katha

Gau ka mulyankan

प्राचीन काल की बात है च्यवन (Mahrishi Chyavan) नामक एक  महर्षि थे l वे बड़ी तपस्वी  थे l  एक बार उन्होंने एक महान व्रत का आश्रय लेकर  जल के भीतर रहने का संकल्प किया l महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोक का त्याग करके महान दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए एक बार 12 वर्ष तक जल  के अंदर रहे l महात्मा महात्मा के स्वभाव व तपश्चर्या से प्रभावित होकर सभी जलचर प्राणी उनके मित्र बन गए l जलचर प्राणियों को उनसे कोई भय नहीं लगता था l एक बार महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) अत्यंत श्रद्धा भाव से उन्मत्त होकर गंगा यमुना के संगम  में जल के भीतर  प्रविष्ट हुए l कभी जल समाधि लगा लेते कभी निश्चल होकर जल के ऊपर बैठ जाते l इस प्रकार व्रतानुष्ठान करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया l  

एक दिन कुछ मल्लाह मछलियों को पकड़ने की इच्छा से हाथ में जाल लिए उस स्थान पर आए जहां महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) जल समाधि लगाए हुए थे l मल्लाहों ने मछली पकड़ने के उद्देश्य से जाल को पानी मैं फैलाया l संयोग से जाल में मछलियों के साथ महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) भी फस गए l मल्लाह जाल खींचने लगे तो उन्हें अधिक बल लगाना पड़ा l इस पर मल्लाह समझे कि आज कोई बहुत बड़ी मछली जाल में फंस गई है l उन्होंने पूरे जोर से जाल को खींचा, तब उसमें जल -जंतुओं से घिरे हुए महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) भी खिंच आये l  

जाल में महर्षि को देखकर महल्ला डर गए l हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगने लगे और उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करने लगे l  पानी से बाहर निकल जाने पर बहुत-से मत्स्य तड़पने और मरने लगे l इस प्रकार मत्स्यों का बुरा हाल देखकर ऋषि का हृदय द्रवित हो उठा l 

उन्होंने मल्लाहों  से कहा, ‘देखो, ये मत्स्य जीवित रहेंगे, तो मैं भी रहूंगा, अन्यथा  इनके साथ ही मर जाऊंगा l मैं इन्हें त्याग नहीं सकता l यह मेरे सह वासी रहे हैं,  मैं बहुत दिनों तक इनके साथ जल में रह चुका हूं l  मैं भी इनके साथ अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूंगा ’

मुनि की बात सुनकर मल्लाह डर गए और उन्होंने कांपते हुए जाकर सारा समाचार महाराज नहुष (Raja Nahush) को सुनाया।

मुनि की सङ्कटमय स्थिति जानकर राजा नहुष (Raja Nahush) अपने मंत्री और पुरोहित को साथ लेकर तुरंत वहां गए l पवित्र भाव से हाथ जोड़कर उन्होंने  मुनि को अपना परिचय दिया और उनकी विधिवत् पूजा करके कहा-  ‘द्दिजोत्तम ! आज्ञा कीजिए, मैं आपका कौन- सा प्रिय कार्य करूँ ?’

महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) ने कहा- ‘राजन् ! इन मल्लाहोंने आज बड़ा भारी परीश्रम किया है। अतः आप इनको मेरा और मछलियों का मूल्य चुका दीजिए l’ राजा नहुष (Raja Nahush) ने सुनते ही मल्लाहों  को एक हजार स्वर्णमुद्रा देने के लिए पुरोहित जी से कहा l 

 

इस पर महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) बोले- ‘ 1000 स्वर्ण मुद्रा मेरा उचित मूल्य नहीं हैं। आप सोच कर इन्हें उचित मूल्य दीजिए।’

इस पर राजा ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा  से बढ़ते हुए 10000000, अपना आधा राज्य और अंत में समूचा राज्य देने की बात कह दी; परंतु च्यवन ऋषि (Mahrishi Chyavan) राजी नहीं हुए l उन्होंने कहा-  ‘आपका आधा या समूचा राज्य मेरा उचित मूल्य नहीं है l आप ऋषियों के साथ विचार कीजिए और फिर जो मेरे योग्य हो, वही मूल्य  दीजिये’।

 

यह सुनकर राजा  नहुष (Raja Nahush) अत्यंत दुखी हो गए l  उन्होंने कुछ सूझ नहीं रहा था l  वे अपने मंत्री और पुरोहित से सलाह करने लगे l

उस समय समय फल- मूल का सेवन करने वाले एक वनवासी मुनि राजा नहुष (Raja Nahush) के समीप में आए और राजा से कहने लगे- “ राजन !  आप दुखी ना होइए,  मैं महर्षि को संतुष्ट कर दूंगा और इनका उचित मूल्य भी आपको बता दूंगा l  आप मेरी बात को बड़े ध्यान से सुनिए l  मैंने कभी हाथ परिहास में भी असत्य भाषण नहीं किया,  हमेशा मैं सत्य ही बोलता हूं,  अंत:  आप मेरी बातों पर शंका मत कीजिएगा l”

 

राजा नहुष (Raja Nahush) ने कहा –  हे प्रभो ! मैं बड़े संकट में हूं l  मेरे कारण एक महर्षि अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को उद्यत है l यदि इनका उचित मूल्य आप बता दें तो यह आपका  बड़ा अनुग्रह होगा l  इस भयंकर कष्ट से मुझे,  मेरे राज्य तथा मेरे कुल की रक्षा कीजिए l

 

नहुष (Raja Nahush) की बात सुनकर मुनि कहने लगे- राजन ! ब्राह्मण और गौएँ एक ही कुल की हैं। ब्राह्मण मंत्र- रूप हैं तो गौएँ हविष्य-रूप l ब्राह्मणों तथा गायों का मूल्य नहीं लगाया जा सकता l  इसलिए आप इनकी कीमत में एक गौ प्रदान कीजिए l

 

अनर्घेया महाराज द्विजा वर्णेषु चोत्तमा:।

 

गावश्च पुरूषव्याघ्र गौर्मूल्यं परकल्प्यताम्:।।

 

मुनि की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि च्यवन के पास जाकर कहा- ‘महर्षे ! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया है l अब आप उठने की कृपा कीजिए l मैंने आपका यही उचित मूल्य समझा है।’

 

राजा की बात सुनकर च्यवन (Mahrishi Chyavan) बोले- राजन !  आपने उचित मूल्य देकर मुझे  खरीदा है l  निश्चित ही इस  संसार में गायों के समान कोई दूसरा धन नहीं है l  गायों के नाम और गुणों का कीर्तन कथा श्रवण करना,  गायों का दान देना और उनका दर्शन-  इनकी शास्त्रों में बड़ी प्रशंसा की गई है l  यह सब कार्य संपूर्ण कार्य को दूर करके परम कल्याण की प्राप्ति कराने वाले हैं l गौएँ लक्ष्मी प्रदान करती है,  उनमें पाप का लेश मात्र नहीं है l गौएँ ही मनुष्य को सर्वदा अन्न और देवताओं को हविष्य देने वाली है l स्वाहा और वषट्कार  सदा गौओं में हि प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञ का संचालनकरने वाले तथा उसका मुख्य l  वे विकार रहित  अमृत धारा करती है और दुहने पर अमृत ही देती है l  वे अमृत  आधारभूता  है l  सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है l  गायों का समुदाय जहा बैठकर निर्भरता पूर्वक सांस लेता है,  उस स्थान को शोभा बढ़ा देता है और वहां के सारे पापों को खींच लेता है l गौएँ स्वर्ग की सीढ़ी है l गौएँ स्वर्ग में भी पूजी जाती है l गौएँ  समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली दे  देवियां है l  उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है और ना उनके माहात्मय का कोई वर्णन ही कर सकता है l

 

तदनन्तर मल्लाहों ने मुनि से उनकी दी हुई गौ को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना की  मुनि ने उनकी दी हुई गाय लेकर कहा- ‘मल्लाहों !  इस गोदान के प्रभाव से तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये l अब तुम इन जल में उत्पन्न हुई मछलियों के साथ स्वर्ग जाओ।’

देखते-ही-देखते महर्षि च्यवन (Mahrishi Chyavan) के आशीर्वाद से वे मल्लाह तुरंत मछलियों के साथ स्वर्ग चले गए। उनको इस प्रकार स्वर्ग को जाते देख  राजा नहुष (Raja Nahush) को बड़ा आश्चर्य हुआ l तदनन्तर राजा नहुष ने महर्षि की गो जाति की पूजा की और उनसे धर्म में स्थित रहने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात राजा अपने नगर को लौट आए और महर्षि अपने आश्रम को चले गए।

 

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च्यवन ऋषि की कथा | महर्षि च्यवनकी गो-निष्ठा

The story of the cow legend King Dileep | गौभक्त राजा दिलीप की अद्भुत कथा

Legend of king Dileep and cow

रघुवंश महाकाव्य में महाराजा दिलीप और नंदिनी गाय (Nandini Cow) की एक बहुत ही मनोहर कथा आती है। जिसमें नंदिनी गाय दिलीप राजा की सेवा से प्रसन्न होकर, उन्हें उत्तम संतान तथा सौभाग्य का वरदान देती है। यह कथा गाय माता की महिमा को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करती है।

महाराजा दिलीप (King Dileep) को वृद्धा अवस्था आने पर भी कोई संतान प्राप्त नहीं हुई थी । संतान ना होने की चिंता में वे बहुत दुखी और चिंतित रहते थे। एक समय उन्होंने अपनी महारानी के साथ विचार विमर्श किया और अपने गुरु वशिष्ठ जी से इस संदर्भ में प्रश्न पूछने की सोची । अतः राजा दिलीप रानी के साथ गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुंचे। आश्रम में पहुंचकर महाराजा दिलीप (King Dileep) और महारानी ने गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया और उनसे संतान ना होने की चिंता व्यक्त की l

गुरु वशिष्ठ जी ने राजा दिलीप (Raja Dileep) को याद दिलाया एक बार अनजाने में उनसे कामधेनु गाय (Kamdhenu Cow)का अनादर हो गया था । जिसके फलस्वरूप उन्हें संतान ना होने का दुख भोगना पड़ रहा है । साथ ही गुरु वशिष्ट जी ने उन्हें इस पूर्व कर्म के फल को काटने का उपाय भी बताया । उन्होंने बताया कि कामधेनु गाय की पुत्री नंदिनी गाय की सेवा करने से वे अपने कर्म का पश्चाताप कर सकते हैं। यदि नंदिनी गाय (Nandini Cow) उनकी सेवा से प्रसन्न हो जाएं तो वह उन्हें शाप से मुक्त कर सकती हैं।

गुरु वशिष्ट जी से यह सब सुनकर राजा दिलीप नंदिनी गाय की सेवा का व्रत ले लेते हैं और व्रत के अनुसार वे अपने दास दासीयों को छुट्टी दे कर, रानी के साथ स्वयं ही नंदिनी गाय की सेवा में लग जाते हैं ।

राजा दिलीप (Raja Dileep) और उनकी पत्नी, गौ माता नंदनी को मीठी घास के कौर खिलाते, उसके शरीर को सुहलाते, डाँस वगैरह को दूर करते तथा वह जहाँ जाना चाहती वही जाने देते थे। साथ ही वे स्वयं भी उसकी गति का अनुसरण करते थे। इस प्रकार उसकी छाया के समान उसके पीछे-पीछे रहते हुए राजा दिलीप उसकी आराधना करने लगे।
राजा दिलीप (Raja Dileep) के तप का प्रभाव और दया-भाव के कारण वन के समस्त स्थावर-जंगम जीव मंत्रमुग्ध रहते थे। प्रजा की रक्षा करने वाले राजा के वन में पैर रखते ही बलवान् प्राणियों ने अपने से कम बल वालों को तंग करना छोड़ दिया था।

राजा दिलीप (Raja Dileep) प्रतिदिन प्रात: काल गाय को चराने के लिए निकलते थे। उस समय उनको रानी पहुंचाने जाती थी और सायंकाल जब राजा गाय को लेकर लौटते थे तब रानी दोनों को लेने जाती थी।

महाराजा दिलीप (Raja Dileep) संध्या काल में नंदिनी गाय की पूजा, अर्चना करके, उसे दुहकर, नंदनी जी के सोने के पश्चात सोते और उनके उठने से पहले उठ जाते थे। इस प्रकार राजा दिलीप को सेवा करते हुए 21 दिन बीत गए ।

तदनन्तर राजा की भक्ति भावना की परीक्षा करने के लिए, मुनि की होम धेनु, एक हिमालय की गुफा में, जिसमें कोमल घास उग रही थी; घुस गई। गाय हिरण पशुओं से सुरक्षित है ऐसा समझकर राजा पर्वत की शोभा देखने में तल्लीन थे। इसी बीच एक सिहं आकर गाय के ऊपर झपट्टा, जिसका पता राजा को नहीं चल सका। जब राजा को गाय की आर्त्त ध्वनि सुनाई पड़ी, तब राजा की नजर पीछे गई । तब राजा ने देखा कि लाल गाय के ऊपर पंजा रखे केसरी सिंह खड़ा है ।

राजा लज्जित हो गए और तरकस में से बाण निकालकर ज्यों ही सिंह पर छोड़ने लगे, तभी तभी उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनका दाहिना हाथ जहां-का-तहां रह गया है, मानो मन्त्रौषधि के द्वारा उनका सारा बाहुबल नष्ट कर दिया है।

राजा की यह लाचारी देखकर सिंह ठहाका मारकर हंसा और बोला,

” राजा ! यह वृथा श्रम क्यों करते हो ? मैं सामान्य सिंह नहीं हूं, बल्कि महादेव का किंकर कुम्भोदर हूँ। शिव जी के चरण स्पर्श से पवित्र हुए मेरे शरीर पर तुम्हारे अस्त्र काम नहीं कर सकते। इसलिए यह व्यर्थ प्रयत्न छोड़ दो और घर लौट जाओ। तुम्हें जो काम सौंपा गया था, उसे तुम कर चुके हो। तुम्हारी गुरु भक्ति सिद्ध हो गई हो चुकी है। जिसकी रक्षा शस्त्र से नहीं हो सकती उसके बचाने में शस्त्र धारी क्षत्रिय निष्फल हो जाए तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं।”

इस पर राजा दीनतापूर्वक जवाब देते हैं,

” हे मृगेन्द्र! मैं हिल-डुल भी नहीं सकता हूं। इसलिए मेरा कहना तुम्हें हँसने योग्य भले ही लगता हो, परंतु – यह नंदिनी गाय गुरु अग्निहोत्री जी की कामधेनु का धन है। अपनी आंखों के सामने मैं इन्हें नष्ट होते हुए नहीं देख सकता। इसलिए तुम मुझ पर कृपा करके मेरा शरीर ले लो और अपनी भूख मिटाओ। कृपया करके महर्षि की इस गाय को छोड़ दो। सांझ होने पर इसका छोटा बछड़ा इसकी रहा देखेगा।”

सिंह राजा को अनेकों प्रकार से समझाता है ताकि राजा अपने निश्चय को बदल दे।

सिहं कहता है- ” यदि तुम भूत दया के वशीभूत हो गए हो तो अपना शरीर प्रदान करके तुम इस एक ही गाय की रक्षा कर सकोगे। लेकिन यदि जीते रहोगे तो हे प्रजानाथ! तुम अपनी प्रजा को पिता के समान सदा संकटों से उबार सकोगे। और यदि तुम्हें अपने गुरु के क्रोध का डर लगता हो तो उनको तुम घड़े-जैसे थन वाली करोड़ों गायों को देकर शांत कर सकते हो।”

इस तरह सिहं द्वारा बहुत प्रकार समझाने पर भी राजा पर कोई प्रभाव न पड़ा।

वरन राजा दिलीप सिंह से कहते हैं कि, ” जिस प्रकार तुम देवदारू वृक्ष की रक्षा शिवजी जी की आज्ञा से करते हो। उसी प्रकार मैं अपने गुरु की आज्ञा से इस गाय की रक्षा करता हूँ। इस प्रकार सेवा कार्य करने- वाले तुम मेरी सेवा की भावना को क्यों नहीं समझते हो ? “

” यदि तुम्हें मुझ पर दया आती हो, तो मेरे इस नश्वर शरीर पर क्यों करते हो ? मेरा जो अमर यश रूपी शरीर है। उसके ऊपर दया करो और इस नश्वर शरीर को तुम खा जाओ। इस नश्वर पिंड पर मेरे- जैसे मनुष्य को कोई आस्था नहीं होती।”

राजा की यह बात सुनकर शेर मन ही मन प्रसन्न होता है और राजा की बात को मान लेता है

इस प्रकार राजा सिंह की भूख मिटाने के लिए उसके चरणों पर अपने शरीर को ‘मास के पिंड के समान’ अर्पण करते देते हैं ।

तभी सिंह के आगे पड़े हुए राजा दिलीप के शरीर पर आकाश से पुष्प वृष्टि होती है और एक धीमी अमृत-जैसी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है- ‘वत्स उठ।’

राजा दिलीप उठते हैं और सामने देखते हैं कि अपनी जननी के समान वह गोमाता दूध की धार छोड़ती हुई खड़ी है और सिंह अदृश्य हो गया है !

माता नन्दिनी उनसे कहती है, ” यह सिंह तो मेरी ही माया थी। इस माया के द्वारा मैंने तेरी परीक्षा ली। ऋषि के प्रभाव से स्वयं काल भी मेरे ऊपर प्रहार करने में असमर्थ है।”

राजा की गुरुभक्ति से, सेवा से और दया से प्रसन्न हुई गाय संतान प्राप्ति के लिए उत्सुक राजा को उनका मांगा हुआ वर प्रदान करती है, और कहती है-

” तुम्हारी गुरु भक्ति और दया भाव से मैं प्रसन्न हो गई हूं। पुत्र ! तू वर माँग। मैं केवल दूध ही देती हूं, ऐसा न समझ। मैं कामधेनु हूं। प्रसन्न होने पर, जो चाहे सो दे सकती हूं।”

गाय को बचाने में प्राण अर्पण किया जाए या करोड़ों गायों का दान पुण्य प्राप्त किया जाए, इस धर्म संकट में एक को चुनने में राजा को देर नहीं लगी। फल स्वरूप राजा दिलीप को गौ रक्षा और सेवा का सच्चा मार्ग प्राप्त हुआ जिस पर चलकर उन्हें समस्त रिद्धि सिद्धि प्राप्त हो गई।

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